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Saturday 6 October 2012

कल्‍पनाओं के महल में


मार्च 1980 में रचित अप्रकाशित

कल्‍पनाओं के महल में
सोच रहा था मैं बैठा
कि सबुह की पहली किरण के साथ तुम आओगी,
फूल पर भंवरे की तरह
मन की बगिया में मंडरा ओगी
इसी इन्‍तजार में मैं बैठा सोच रहा था
कि तुम कब आओगी।
बादलों की ओट से उतरेगी
बनकर चांदनी की एक किरण
मन में होगा तब उजियारा
मन के दर्पण में रूप तुम्‍हारा नजर आएगा,
इसी सोच में बैठा सोच रहा था
कब मेरा ख्‍याल तुम्‍हारे मन में आएगा।
जब आंगन में पड़ेंगे पांव तेरे
स्‍वर्ग सा यह मंजर बन जाएगा,
उसी शाम नजर तुम्‍हें
हमारा नया जीवन आएगा
इसी कल्‍पना के महल में बैठा
सोच रहा था तुम कब आओगी।
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