तुम कौन से चिराग़
की लौ हो,
जिससे जीवन में
रोशनी नहीं।
तुम कौन से गगन की
रात हो,
टिमटिमता तारा
जिसमें एक भी नहीं।
तुम कौनसे सागर की
गहराई हो,
जिसके बन्द सीप
में मोती एक भी नहीं।
तुम कौन सी काठ की
नैया हो,
जिसका मांझी है
पतवार नहीं।
तुम कौनसी अविरल
जल की धारा हो,
धरती को जो सींच
सकती भी नहीं।
तुम कौनसी वो बंजर
जमीं हो,
जिसने अब सोना
उगला नहीं।
वो खान भी क्या
जिसके
चारों
ओर जिसके घार भी नहीं।
इनको
हटा दोहर कर इनका
सोना
निकालो कोयला नहीं।
ये कौन
से जमाने की हवा है
जिसमें
आने वाले कल की खुशबू नहीं।
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