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Monday 26 November 2012

अजनबी


वो आई थी रात बनकर
दिल बहलाने को
दिल तो बहल गया
छोड़ गई रात तड़पाने को।
चुभते रहे
तेरी यादों के वो नश्‍तर
दर्द दिल के छिपाने को।
आरजू थी एक पल
साथ रहने की,
छोड़ गई
दुनिया के मैंदा में,
शिकस्‍त खाने को।
खड़ा इन्‍तजार बनकर
देख रहा राह

उस अजनबी के लौट आने की।


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Saturday 24 November 2012

एक बार फिर


एक बार
रूप अपना फिर संवार लो।

कंगना फिर वो पहनलो,
बिंदिया हक की वो मेरी
माथे पर सजालो
रूप अपना फिर संवार लो।

केश वही
फिर खोल दो
शाम फिर यूं ही गुजर जाने दो,
काजल न सही
आंखों में मुझको बसा लो
रूप अपना फिर संवार लो।

लाली न सही
होठो पर मेरा नाम रख लो
रचने कुछ नहीं कृति
हाथों मे नाम ही सजा लो
रूप अपना फिर संवार लो।

मुझे न सही
यादें मेरी, फिर बांधेंगी 
तुम्‍हारी आंखें
दुबारा फिर मुझे तलाश लो
रूप अपना फिर संवार लो।
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Friday 23 November 2012

कश्‍ती


ख्‍वाबों की कश्‍ती वो ले चले
किनारे को अकेला छोड़,
उदास सा चेहरा लिए
देखता, सहता रहेगा थपेड़े
तेरी यादों की लहरों के ।

देखती रहेंगी वो गुमनान सी आंखें
इस किश्‍ती के लौट आने की राह में,
कब मिलेगी गले किनारे से
उसके दामन में समाने के लिए ।
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Thursday 22 November 2012

अहसास


देखो ! वो कौन खड़ा है ?
दर्पण के सामने
मौन।
क्‍या देख रहा है वो
एक टक दर्पण को ?
आओ । पूछे इससे
वो क्‍यों खड़ा है इस तरह ?
क्‍या चाहता है आखिर वह
इस दर्पण से ?
मैने उसे
क्‍या पाया आपने
उसने कहा अहसास ।
कैसा अहसास,
मैंने पूछा ।
उसने कहा
वो अहसास जो सिर्फ मौन रहकर
मन से बन्‍द आंखों से
महसूस किया जाता है।
मैने पूछा
वह भी दर्पण के सामने ?
उसने कहा
हां दर्पण के सामने ।
उसके आस-पास होने का
अहसास है।
उसे ही तलाश रहा हूं मैं
कि कहीं मेरे मन के दर्पण में तो नहीं
उसने कहा।
लेकिन दर्पण के सामने ही क्‍यूं ढूंढना
मैने कहा।
वो थोड़ा सा मुस्‍कुराया
दर्पण भी तो एक मन है।
और दर्पण भी तो एक मन है।
जिसमें सब कुछ दिखाई देता है
अगर वो यहीं है तो उसे जग में
कहीं भी तलाश लूंगा ।
आगे मैं जवाब नहीं दे सका
उसकी बातों का और मैं
चला आया।
लेकिन वो
जड़वत सा खड़ा रहा
उस दर्पण के सामने।
खड़ा उसी तरह
अपने प्रतिबिम्‍ब को
देखता रहा।

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Wednesday 21 November 2012

जुदाई


अंधेरी पाख सी जिन्‍दगी में
थी किरण वो चांदनी की,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने चांद से।

जिन अश्‍कों की बूंदों से धोए
विराने खण्‍डहर जिन्‍दगी के,
हो रहे हैं वे भी जुदा
आज अपनी ही आंख से।

पतझड़ सी जिन्‍दगी में
आई थीं बहार बनकर सावन की,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने ही मौसम से।

थी वो आत्‍मा पराई सी
बतौर अमानते
जिस्‍म में मेरी,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने ही जिस्‍म से।

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