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Thursday 11 October 2012

छोटे मुक्‍तक -5

भूल हुई मुझसे,

समझ न सका
अपने दर्पण को मैं,
उतार कर अपने हाथों,
रख क्‍यों दिया अलग मैने ।
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बेदाम सफेद
कागज सी जिन्‍दगी पर
छिकटते हैं काली स्‍याही
तो हैवान नहर आते हैं।
लिखते अगर
चरित्र की परिभाषा तो
इन्‍सान नज़र आते हैं।
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मेरी मंजिल की
बन्‍द खिड़कियां खुली रहने दो
यहां मेरी खुशियों हवा
सदा बहती है।
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हां है बन्‍द
खण्‍डहर के एक कोने में
पहुंच नहीं सकती वहां
सदा बन्‍द दरवाजों से,
धीमी हैं सांसे मेरी,
आओ! इन्‍हें गति दें।
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1 comment:

  1. क्या बात है सर , आपने तो खजाना छुपा रखा है ।

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