बेनाम सी जिन्दगी
हो गई अब
यादों के टूटे खण्डहर
में खो गई अब।
बेबस सी भटकती रूह
तलाशती नए घर खो
गई अब।
बेजार सी ये
आंखें,
अपनों के बीच
खोजती
स्वयं
खो गई आंखें अब।
ये कौन
सी जिन्दगी जी रहा हूं मैं,
शक के
दायरों में,
संकीर्णता
बढ़ती इसकी जा रही है अब।
साथ
कोई देने वाला नहीं,
मैं
कौन सा अभिमन्यू बनूं,
जो
चक्रव्यूह तोड़े अब।
में कोनसा अभिमन्यु बनू
ReplyDeleteजो तोड़े चक्रव्यू अब
बहुत शानदार रचना