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Saturday 3 November 2012
कशिश
न जाने कौनसी
अनजानी सी खुशबू
कशिश जिसकी खींच जाती है
तुम्हारे यहां।
एक वक्त ऐसा भी आएगा
चाहत के बहते समन्दर में
तड़पता छोड़ जाओगे मझधार में,
यादों की मौजों की चोट
सहने के लिए।
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1 comment:
ओंकारनाथ मिश्र
4 November 2012 at 02:26
सच में यादें साथ कहाँ छोडती हैं.
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सच में यादें साथ कहाँ छोडती हैं.
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