सदियों से सींचते
आए जिसे
आजादी के उपवन को,
न ले सके जायका वे
इस फलित उपवन का,
उपवन जो छोटा सा
बना गए।
सजा भिन्न भिन्न
फल-फूलों से
खुशियों की बहारों
से आबाद,
न जाने भेंट चढ़ा
कैसे उपवन
ढोलते मनचले
दरिंदे भंवरों के,
आमादा इसका रस
चूसने को हैं।
अपंगता का जामा
पहने
विवश्ता लिए क्या
करे माली,
रौंद रहे वो देखो
पहरेदार भी सो रहा
है,
जनता तमाशा देख
रही है।
धमकी भय की बाढ़
लगा
अपने स्वार्थी
पेट के लिए,
वह निर्दोषों की
दुनियां उजाड़ रहा
मंदिर मस्जिद नहा
गए
अपवित्रता के कुंड
में,
कितना गन्दा मैला
कर दिया
उपवन की माटी को,
पवित्रता इसकी न
जाने कहां गई।
उस ''संजय'' की
आंखें कहां
तलाश जो सके बदली
ऐसी,
जो उपवन का इतिहास
लौटा सके।
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badhiya rachana ... badhai
ReplyDeleteबहरीन रचना संजय जी.
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