देखो ! वो कौन खड़ा है ?
दर्पण के सामने
मौन।
क्या देख रहा है वो
एक टक दर्पण को ?
आओ । पूछे इससे
वो क्यों खड़ा है इस तरह ?
क्या चाहता है आखिर वह
इस दर्पण से ?
मैने उसे
क्या पाया आपने
उसने कहा अहसास ।
कैसा अहसास,
मैंने पूछा ।
उसने कहा
वो अहसास जो सिर्फ मौन रहकर
मन से बन्द आंखों से
महसूस किया जाता है।
मैने पूछा
वह भी दर्पण के सामने ?
उसने कहा
हां दर्पण के सामने ।
उसके आस-पास होने का
अहसास है।
उसे ही तलाश रहा हूं मैं
कि कहीं मेरे मन के दर्पण में तो नहीं
उसने कहा।
लेकिन दर्पण के सामने ही क्यूं ढूंढना
मैने कहा।
वो थोड़ा सा मुस्कुराया
दर्पण भी तो एक मन है।
और दर्पण भी तो एक मन है।
जिसमें सब कुछ दिखाई देता है
अगर वो यहीं है तो उसे जग में
कहीं भी तलाश लूंगा ।
आगे मैं जवाब नहीं दे सका
उसकी बातों का और मैं
चला आया।
लेकिन वो
जड़वत सा खड़ा रहा
उस दर्पण के सामने।
खड़ा उसी तरह
अपने प्रतिबिम्ब को
देखता रहा।
बहुत अच्छी भावाव्यक्ति , बधाई .......
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