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Wednesday 21 November 2012

जुदाई


अंधेरी पाख सी जिन्‍दगी में
थी किरण वो चांदनी की,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने चांद से।

जिन अश्‍कों की बूंदों से धोए
विराने खण्‍डहर जिन्‍दगी के,
हो रहे हैं वे भी जुदा
आज अपनी ही आंख से।

पतझड़ सी जिन्‍दगी में
आई थीं बहार बनकर सावन की,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने ही मौसम से।

थी वो आत्‍मा पराई सी
बतौर अमानते
जिस्‍म में मेरी,
हो रही है वो भी जुदा
आज अपने ही जिस्‍म से।

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