अकेले पन की राहों
में
राह के पत्थरों
की तरह,
छोड़ गए तुम।
चोट सहते इन्तजार
की
तनहाइयों के पत्थर
हो गए हम।
कितने टुकड़े और
होंगे अब
आह से भरी राहों
में
जीने को छोड़ गए
तुम।
सफ़र के दरमियां
इस राह से तो गुजरोगे
सम्भलना ऐ हमसफ़र
ठोकर देकर मुझे,
चोट तुम खाओगे।
चलने से पहले
मुझे अपने हाथों
उठा कर
उद्धार मेरा
तुम कर देना।
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बढ़िया रचना
ReplyDeleteदीपावली पर हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाइयाँ
Gyan Darpan