ऋतुओं पर आधारित कविताएं
गर्मी
दूर चले गए
अपनी यादें छोड़ कर,
बिछोह की तपन से
झुलस गए हो,
आंधी के झोकों से
उठी धूल गगन में,
तपती कहीं धूप की लपटों से
देख, सहती धरा की ओर,
देखा जिससे जाता नहीं
वो तुम ही तो हो।
भरी ताल कमल कुंज से
बसी खिले पाटल की गंध,
शीतल जल से सुहाता।
काली रात का आंचल
ओढ़े धरा है बैठी,
तारों के मोतियों का हार पहने,
चन्द्र की शीतल
शान्त, शालीनता लिए,
वो तुम ही तो हो।
वर्षा
केसू से खोल दिए
केश जो तुमने
पुकार पपीहे की भी सुनो,
झुक रही बदली
नीर के भार से,
मचल रही कड़कने को
दामिनी है,
आ रही गरजती बदली
वो तुम ही तो हो।
छितराई हुई
पानी की नन्हीं बूंदें
घास के कोमल अकुवों पर,
लदी कदली के पत्तों पर
टपक रही नन्हीं बूंदे,
धौले रत्नों से
सजी आभूषणों वाली धरा
दिखाई दे रही आज नायिका
वो तुम ही तो हो।
खिलते सुमन सी वो मुखवाली
डरे हिरण की सी चंचल आंखें,
लेटी यादों के अकुवों पर
देख अम्बर के मैंदां पर,
आंख मिचौली है दामिनी की
बादलों का है क्रिड़ा शोर,
लिपट जाती है वो सिरहाने से
भय का आंचल ओढ़े
वो तुम ही तो हो।
नवनीर की फुआर लिए
ठंडा हुआ जवां पवन,
फूलों के बोझ से झुके
पेड़ों को नचा रहा पवन,
चुरा पराग केतकी के फूलों का
मन भावन भीनी भीनी सुगन्ध का,
चंवर ढुला रही वो पवन
वो तुम ही तो हो।
आग की तपन लिए
विन्द्ययाचल की वो पर्वत माला
जिन पर नर्तन मयूरों का,
वो बदली हम बन सकें
तपन ठंडे पानी से बुझाने को,
यह समझ
थके नीर के बोझ से
आसरा जो पर्वत माला देगी
वो तुम ही तो हो।
छोड़ दिए श्रंगार सभी
अपनों की याद में,
नवकोपल अधरों पर
बहते अश्क सजल नयनों से,
हाथ धरे बैठी गालों पर
जाने किस सोच में
वो तुम ही तो हो।
शरद्
अगहन की हल्की हल्की ठंड
पोष् की सर्द भरी हवाएं,
ठिठुरता बदन और
वही गर्म सांसें,
दोनों का अतृप्त मन
वो तुम ही तो हो।
विचरते मस्त गगन में
हंसों की बोली,
फूले कांस के
वस्त्रों का पहनावा,
सुहावने बिछुए
पहने पाँवों में,
पके धान की
झूमती बाली,
कमल से चेहरे
मनोहर काया वाली
वो तुम ही तो हो।
अकेली रात
हटे बादलों की रात,
शीतल चांदनी का
उजला परिधान पहने,
मोहक तारों का श्रंगार किए
वो अलबेली रात,
वो तुम ही तो हो।
बिखर गई कितनी ही
किरणें उषा काल की,
पत्तों पर पड़ी
ओस की बूंदों से,
बिखर गए कितने ही आसमान पर
श्रंगार धरा का करने को,
छू रही पवन
मस्त खिले फूलों को,
लेती ठंडक
मदमस्त बहती पवन
वो तुम ही तो हो।
हेमन्त
नई फसल के अकुंवों पर
पाला गिराती आई हेमन्त,
लौंध के फूलों से सुहावनी
दिखाई देने लगी धरा,
निर्मल जल के ताल में
खिले नीलकमल है कितने,
मस्त तैरते वो जलचर
चित खो गया देख जिन्हें,
मृग नयनी सी डरी वो
देख रही सूनी डगर,
लम्हा इन्तजार का बीत चला
सोच रही अश्क लिए नयनों में,
आने पर उनसे बात कैसे करुं
वो तम ही तो हो।
शिशिर
खुली रात का आंचल
बनी ओस से ठंडी पवन,
चन्द्र किरण से बना चन्दन
कुछ भी नहीं है सहाता
न ही तारों भरी रात में निकलना,
श्रंगार कर अपने सभी
आसव पान कर फूलों का,
मुख मण्डल में सुगन्ध लिए
चली शयन कक्ष की ओर,
एक और मिलन के लिए
वो तुम ही तो हो।
बसंत
ढकी पारस के जंगलों से धरा
लग रही ऐसे पहने लाल जोड़ा,
जैसे हो नई दुल्हन कोई
वो तुम ही तो हो।
कूक कोयल की
गुन्जन भौरों का,
फैला रही संदेश इनका
मस्त वो बसन्ती हवा,
सुन्दरता लिए पुष्प
ओर छोर लदे पर्वतों पर,
करधनी बांधे सोने की
हार मोतियों का पहने,
हल्के शरीर वाली
वो खड़ी अप्सरा,
वो तुम ही तो हो।
अमृत भरे अधरों पर
उजले कुन्द के मोतियों से
चमकते दन्त पंक्ति,
कमल सा दमकता चेहरा
बसी सुगन्ध अंग अंग में,
चुरा पवन जिसे
वो तुम ही तो हो।
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