शबनम् के शीतल मोती
याद में तुम्हारी जलाते रहे
मरहम ही नहीं जख्मों पर लगाने के लिए।
घुट-घुट कर रही जाती है
तुम्हारे अहसास की वो किरण
बन्द कमरे के किसी कोने में।
तुम्हारी याद फिर भ्रम पैदा करती है
तुम्हारे करीब होने की,
दुनिया के रास्तों से न सही
एक पल के लिए चले आओ
ख्वाबों के रास्ते से ही सही।
उतार लेंगे अपने ख्वाबों के शहर में
मैं और तुम गुजार देंगे विरह की काली रात,
उसी के आंचल को ओढकर
कर देंगे विदा तुम्हें,
सुहानी भोर के आने से पहले।
दूरियों की बजती वो शहनाई
छेड़ जाती है ये,
तुम्हारे बिछोह की रागनी
रूला देती है, जिस्म के रोम रोम को
शिकस्त यही खाने को।
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