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Thursday 27 December 2012

पतझड़



अब सार्थक होंगी ये सदाएं
दी थी जो अकेलेपन की वीरान गलियों से।
अब आएगी फिर नए अन्‍दाज से बहार,
उजड़ गई थी जो पतझड़ से।
आ रहा बासन्‍ती मौसम
बन कर पूर्वाई
अतृप्‍त धरा की प्‍यास बुझाने।
काली घटा बनकर ले अपनी बदली
उड़ चलेगा पछुवाई बनकर
चीरती बयार इन्‍द्रधनुषी पथ से।
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3 comments:

  1. कुछ अलग सी पोस्ट सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी

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  2. शानदार लेखन,
    जारी रहिये,
    बधाई !!

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