ले आया फागुन
रंगों का त्यौहार
होलिका तो जल गई
अहम् की होली में
लेकिन दहक रही मन की होली।
रह रहकर चटकती है
अतीत की चिंगारियां
ले जाते हैं लोग
कुछ चुन-चुन कर
दहकते अंगारे तुम्हारी याद में।
छुपा रखे हैं पहले ही सीने में
दहकते अंगारे तुम्हारी याद के
बुझ न सकेंगे न ठंडे हो सकेंगे
नयनों की रंगीली धार में।
दुलहण्डी की रंगीन किरणें
फैल गई धरा के आंचल पर
रंग गया
गोरा बदन मिलन के रंग से।
उतर गया मन रंगों की दुनिया में
रंगता गया तन-बदन
रंग न सका कोई मन।
बस यू ही खड़ा रहा
मुट्ठी भर अबीर लिए
फैला दी दोनों बांहे
तुम्हारी चाहत लिए।
न आंचल भीगा, न चोली
कोई क्या करे
नयरों की पिचकारी लिए
अबके बरस
यूं ही निकल जाएगी
तेरे इन्तजार में होली।
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