रात कितना रोई तुम्हें ना पाकर
मन को घरोदें में छिपे क्यों रहते हो तुम
दिन बीत गया निशा के द्वार तक
ख्वाब अस किसके लिए चुराऊं।
रात भी बीत गई
अखियों के झरोखे से भी न आए तुम
शयन शैया तुम्हारे स्वप्नों से भरी कहां
जो अपनी आंखों में बसाऊं।
तरसा दिया-तड़पा दिया
मोहताज कर दिया सपनों के सौदागर को
चल पड़ा वो बन कर सपनों का सौदागर
गया खरीदने ख्वाबों की एक कली
न थे लताओं पर फूल।
कुछ सींचा, कुछ पाला
तैयार कर ख्वाबों की बगिया
ले चला न जाने कौन अपना बना
ख्वाबों की उस कली को।
बेहतर लेखन !!
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